|| आयातु वरदा देवी अक्षरं ब्रहम सम्मितम ||
|| गायत्री छंदसाम् माता इदम ब्रह्म जुषष्व न: ||
स्त्री अखाड़ा जिसका संक्षिप्त नामकरण “ अखाडा परी ” के रूप मे है ,एक रजिस्टर्ड संस्था/संगठन है ,समस्त औपचारिकताओं को पूरा करने के उपरान्त इसका राष्ट्र स्तर पर रजिस्ट्रेशन हुआ है तदनुसार समस्त दयित्वों के परिपालन स्वरूप इसे संस्था /संगठन सम्बन्धी अधिकार हासिल है , वस्तुतः सनातन हिन्दू धर्म में अखाड़ों का निर्माण धर्म की रक्षा आवश्यकताओं के उद्देश्य से किया गया तथा इनकी प्राचीनता है ,जो भी विधि विधान आरम्भिक काल में निश्चित किये गए वे तत्समय की सामाजिक स्थिति के अनुसार थे I जो कि आगे के काल में परम्परा के रूप में चलते आए , मुख्यतः यह अखाड़े पुरुष वर्ग तक इसलिए सीमित रहे, क्योंकि उस समय स्त्रिओं की सामाजिक स्थिति आज के समय से भिन्न थी, अब तो स्वस्थ सामाजिक व्यवस्था है, अखण्ड भारत है जिसका संविधान है , इसके तहत स्त्री वर्ग को भी वही पहचान व अधिकार प्राप्त है ,जो की पुरुष वर्ग को है।
रक्षण क्षेत्र में भी स्त्रियों की भगीदारी होना आवश्यक प्रतीत हुई अतएव पुलिस , सेना जैसे रक्षा संबंधी सभी संस्थानों में स्त्री वर्ग की उपस्थिति व योगदान अरसे पूर्व से चला आ रहा है I आज स्त्री वर्ग ने अपने कर्तव्यों के सुपालन स्वरुप सर्वत्र सराहनीय उपलब्धि प्राप्त किया है , तो फिर धर्म रक्षण के क्षेत्र में यदि इनका प्रवेश स्वतंत्र पहचान के रूप में हो गया तो इसमें हैरानी किसे और क्यों होनी चाहिए ? आखिर स्त्री वर्ग समाज रुपी गाड़ी का दूसरा पहिया है I कौन सा किस क्षेत्र का प्रबुद्ध वर्ग चाहेगा की स्त्री सदैव से भोग्य की वस्तु के रूप में बनी रहे , पिंजरे में बंद पक्षी की हैसियत से उठा कर इस आधे अंग की अस्पृश्यता निवारण हेतु उठाए गए कदम को कौन सी निगाह अनौचित्यपूर्ण व अनैतिक ठहरा सकती है ? कुछ लोग जो अब अखाड़े के रूप में प्रतिष्ठित व संम्पन स्थिति में अपनी पहचान बना चुके है क्या आरम्भिक उदेश्यों की पूर्ति हेतु गठित अखाड़ों की रूपरेखा में बने रह सकने योग्य रह गयें है , या मात्र शाही स्नान की अपनी भव्यता का प्रदर्शन तक ही इनकी उपयोगिता रह गई है ?
समय पुनरावलोकन, पुनर्विचार का है ,आत्ममंथन का है, आत्मशुद्धि का है I आप हिन्दू है प्रबुद्ध है , समर्थ है , दुराग्रह छोड़िये, परम्पराओं की उन बेड़ियों को जो स्वस्थ मानसिकता चाहती है , हटा दिजिए तथा ,मान्याताओं के परिमार्जन हेतु इस स्त्री अखाड़े से जुड़कर स्वस्थ-स्वच्छ हवा में सांस लेने हेतु अग्रसर होइये I
जगद्गुरु
मेरी दृस्टि में शंकराचार्य एक पदवी का नाम है ,भले ही यह सच है कि एक शंकर नामक महात्मा इस भरतभूमि पर हुए है I जिन्होंने इस देश में चार धर्मपीठों की स्थापना किया तथा जिन व्यकितयों को इन पीठों पर पदासीन कराया उन्हे भी कालान्तर में शंकराचार्य कहा गया I वस्तुतः यह एक आचार्य का पद है जिस पर कि तत्समय की सामाजिक स्थिति के अनुसार केवल पुरुष ही आसीन हो सकता था या किया जा सकता था I यदि भारतीय धार्मिक पृष्ठभूमि में इस प्रकरण को देखे तो यह एक सामयिक ,परस्थितिजन्य ,कालिक व्यवस्था के अनुसार है ,जिसे की सार्वकालिक व्यवस्था के रूप में अपनाना कदापि न तो स्वीकार्य होना चाहिए न ही इसे न्यायसंगत ठहराया जा सकता है I यह नैसर्गिक "न्याय " है कि तत्वतः स्त्री व पुरुष जो भी अंतर दृस्टिगत होता है वह लिंग भेद तक ही सीमित है ,मूलतः दोनों में कोई विभेद नहीं है I कम से कम इस वैदिक युग परम्परा सम्मत देश में स्त्री किसी भी क्षेत्र में "वंचना "का पात्र न होकर सर्वत्र सभी व्यवस्था में पूजित चली आ रही है I आदरणीय स्वामी शंकर का काल तथा इतिहास क्रम सर्वज्ञात है किन्तु क्या कोई मनीषी गार्गी ,सावित्री ,प्रभृति स्त्रिओं के काल निर्धारण हेतु सटीक इतिवृति का प्रकाशन करने को समर्थ है ? यह निर्विवाद निष्कर्ष है कि हमारी यह जो विश्व में अद्धितीय सांस्कृतिक व धार्मिक पूंजी संचित है , वह एक स्वस्थ ,उदात्त ,सामाजिक परिवेश से ही निःसृत हो सकती है ,कोई भी अनुदार "स्त्री वंचक " समाज इतनी उत्कृष्ट सांस्कृतिक उपज को उपजाने में कभी समर्थ नहीं हो सकता है I फिर जननी तो मूल " आदि गुरु " है , शाश्वत आचार्य " है , प्रकृति प्रदत है , उसे क्या किसी सीमित परम्परागत प्रमाण पत्र द्धारा आचार्य का दर्जा प्रदान किया जाएगा ? इसी क्रम में कहना है कि चूँकि कभी किसी ने यह सोचा तक नहीं कि स्त्री को भी इस पद पर आसीन किया जाय ,अस्तु अपनी नहीं बल्कि " स्त्री " की गरिमा को स्थापित करने हेतु स्वयं को " शंकराचार्य " पद पर उदघोषित करने की बाध्यता स्वरुप यह किया गया I हमारी मूल धर्मव्यवस्था में सर्वोच्च पद " ऋषि "का होता है I जब राजर्षि रूप में आज का कोई व्यक्ति ( श्री पुरषोत्तम दास टंडन ) व्यवहृत हो सकता है तो फिर "शंकराचार्य " मेरे द्धारा विशेषण रूप में यदि प्रयुक्त होता है , इसमें विसंगति क्या है I खेद है के आज यह कतिपय तथाकथित धार्मिक संसद - आचार्य एक स्त्री कर धर्मपद व्यवहृत करने मात्र से बवेला मचाये हुऐ है तथा बतौर धमकी शास्त्रार्थ की चुनौती देते फिर रहे है न तो धर्म ,न ही शास्त्र से परिचित हुऐ प्रतीत होते है, फिर भी सर्व हिन्दू समाज इनके आयोजन को यदि स्वीकार्य माने तो मुझे आयोजन मे सम्मलित होने मे कोई आपत्ति नहीं है I परहित सरिस धरम नहीं भाई ! परहित सरिस धरम नहीं भाई !